Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः गबन


गबन
...

जालपा ने रमा से कभी दिल खोलकर बात न की थी। वह इतनी विचारशील है, उसने अनुमान ही न किया था। वह उसे वास्तव में रमणी ही समझता था। अन्य पुरूषों की भांति वह भी पत्नी को इसी रूप में देखता था। वह उसके यौवन पर मुग्ध था। उसकी आत्मा का स्वरूप देखने की कभी चेष्टा ही न की। शायद वह समझता था, इसमें आत्मा है ही नहीं। अगर वह रूप-लावण्य की राशि न होती, तो कदाचित वह उससे बोलना भी पसंद न करता। उसका सारा आकर्षण, उसकी सारी आसक्ति केवल उसके रूप पर थी। वह समझता था, जालपा इसी में प्रसन्न है। अपनी चिंताओं के बोझ से वह उसे दबाना नहीं चाहता था,पर आज उसे ज्ञात हुआ, जालपा उतनी ही चिंतनशील है, जितना वह ख़ुद था। इस वक्त उसे अपनी मनोव्यथा कह डालने का बहुत अच्छा अवसर मिला था, पर हाय संकोच! इसने फिर उसकी ज़बान बंद कर दी। जो बातें वह इतने दिनों तक छिपाए रहा, वह अब कैसे कहे? क्या ऐसा करना जालपा के आरोपित आक्षेपों को स्वीकार करना न होगा? हां, उसकी आंखों से आज भ्रम का परदा उठ गया। उसे ज्ञात हुआ कि विलास पर प्रेम का निर्माण करने की चेष्टा करना उसका अज्ञान था।
रमा इन्हीं विचारों में पडा-पडा सो गया, उस समय आधी रात से ऊपर गुज़र गई थी। सोया तो इसी सबब से था कि बहुत सबेरे उठ जाऊंगा, पर नींद खुली, तो कमरे में धूप की किरणें आ-आकर उसे जगा रही थीं। वह चटपट उठा और बिना मुंह-हाथ धोए, कपड़े पहनकर जाने को तैयार हो गया। वह रमेश बाबू के पास जाना चाहता था। अब उनसे यह कथा कहनी पड़ेगी। स्थिति का पूरा ज्ञान हो जाने पर वह कुछ-न?कुछ सहायता करने पर तैयार हो जाएंगे।
जालपा उस समय भोजन बनाने की तैयारी कर रही थी। रमा को इस भांति जाते देखकर प्रश्न-सूचक नजरों से देखा। रमा के चेहरे पर चिंता, भय,चंचलता और हिंसा मानो बैठी घूर रही थीं। एक क्षण के लिए वह बेसुध-सी हो गई। एक हाथ में छुरी और दूसरे में एक करेला लिये हुए वह द्वार की ओर ताकती रही। यह बात क्या है, उसे कुछ बताते क्यों नहीं- वह और कुछ न कर सके, हमदर्दी तो कर ही सकती है। उसके जी में आया,पुकार कर पूछूं, क्या बात है? उठकर द्वार तक आई भीऋ पर रमा सड़क पर दूर निकल गया था। उसने देखा, वह बडी तेज़ी से चला जा रहा है, जैसे सनक गया हो न दाहिनी ओर ताकता है, न बाई ओर, केवल सिर झुकाए, पथिकों से टकराता, पैरगाडियों की परवा न करता हुआ, भागा चला जा रहा था। आख़िर वह लौटकर फिर तरकारी काटने लगी, पर उसका मन उसी ओर लगा हुआ था। क्या बात है, क्यों मुझसे इतना छिपाते हैं?
रमा रमेश के घर पहुंचा तो आठ बज गए थे। बाबू साहब चौकी पर बैठे संध्या कर रहे थे। इन्हें देखकर इशारे से बैठने को कहा, कोई आधा घंटे में संध्या समाप्त हुई, बोले, 'क्या अभी मुंह-हाथ भी नहीं धोया, यही लीचड़पन मुझे नापसंद है। तुम और कुछ करो या न करो, बदन की सगाई तो करते रहो क्या हुआ, रूपये का कुछ प्रबंध हुआ?'
रमानाथ-'इसी फिक्र में तो आपके पास आया हूं।'
रमेश-'तुम भी अजीब आदमी हो, अपने बाप से कहते हुए तुम्हें क्यों शर्म आती है? यही न होगा, तुम्हें ताने देंगे, लेकिन इस संकट से तो छूट जाओगे। उनसे सारी बातें साफ-साफ कह दो। ऐसी दुर्घटनाएं अक्सर हो जाया करती हैं। इसमें डरने की क्या बात है! नहीं कहो, मैं चलकर कह दूं।'
रमानाथ-'उनसे कहना होता, तो अब तक कभी कह चुका होता! क्या आप कुछ बंदो।स्त नहीं कर सकते?'
रमेश-'कर क्यों नहीं सकता, पर करना नहीं चाहता। ऐसे आदमी के साथ मुझे कोई हमदर्दी नहीं हो सकती। तुम जो बात मुझसे कह सकते हो, क्या उनसे नहीं कह सकते?मेरी सलाह मानो। उनसे जाकर कह दो। अगर वह रूपये न दें तब मेरे पास आना।'
रमा को अब और कुछ कहने का साहस न हुआ। लोग इतनी घनिष्ठता होने पर भी इतने कठोर हो सकते हैं। वह यहां से उठा, पर उसे कुछ सुझाई न देता था। चौवैया में आकाश से फिरते हुए जल-बिंदुओं की जो दशा होती है, वही इस समय रमा की हुई। दस कदम तेज़ी से आगे चलता, तो फिर कुछ सोचकर रूक जाता और दस-पांच कदम पीछे लौट जाता। कभी इस गली में
घुस जाता, कभी उस गली में… सहसा उसे एक बात सूझी, क्यों न जालपा को एक पत्र लिखकर अपनी सारी कठिनाइयां कह सुनाऊं। मुंह से तो वह कुछ न कह सकता था, पर कलम से लिखने में उसे कोई मुश्किल मालूम नहीं होती थी। पत्र लिखकर जालपा को दे दूंगा और बाहर के कमरे में आ बैठूंगा। इससे सरल और क्या हो सकता है? वह भागा हुआ घर आया, और तुरंत पत्र लिखा, 'प्रिये, क्या कहूं, किस विपत्ति में फंसा हुआ हूं। अगर एक घंटे के अंदर तीन सौ रूपये का प्रबंध न हो गया, तो हाथों में हथकडियां पड़ जाएंगी। मैंने बहुत कोशिश की, किसी से उधार ले लूं, किंतु कहीं न मिल सके। अगर तुम अपने दो-एक जेवर दे दो, तो मैं गिरों रखकर काम चला लूं। ज्योंही रूपये हाथ आ जाएंगे, छुडादूंगा। अगर मजबूरी न आ पड़ती तो, तुम्हें कष्ट न देता। ईश्वर के लिए रूष्ट न होना। मैं बहुत जल्द छुडा दूंगा---'
अभी यह पत्र समाप्त न हुआ था कि रमेश बाबू मुस्कराते हुए आकर बैठ गए और बोले, 'कहा उनसे तुमने?
रमा ने सिर झुकाकर कहा, 'अभी तो मौका नहीं मिला।
रमेश-'तो क्या दो-चार दिन में मौका मिलेगा- मैं डरता हूं कि कहीं आज भी तुम यों ही ख़ाली हाथ न चले जाओ, नहीं तो ग़जब ही हो जाय! '
रमानाथ-'जब उनसे मांगने का निश्चय कर लिया, तो अब क्या चिंता! '
रमेश-'आज मौका मिले, तो ज़रा रतन के पास चले जाना। उस दिन मैंने कितना जोर देकर कहा था, लेकिन मालूम होता है तुम भूल गए।'
रमानाथ-'भूल तो नहीं गया, लेकिन उनसे कहते शर्म आती है।'
रमेश-'अपने बाप से कहते भी शर्म आती है? अगर अपने लोगों में यह संकोच न होता, तो आज हमारी यह दशा क्यों होती?'
रमेश बाबू चले गए, तो रमा ने पत्र उठाकर जेब में डाला और उसे जालपा को देने का निश्चय करके घर में गया। जालपा आज किसी महिला के घर जाने को तैयार थी। थोड़ी देर हुई, बुलावा आ गया। उसने अपनी सबसे सुंदर साड़ी पहनी थी। हाथों में जडाऊ कंगन शोभा दे रहे थे, गले में चन्द्रहार,आईना सामने रखे हुए कानों में झूमके पहन रही थी।
रमा को देखकर बोली, 'आज सबेरे कहां चले गए थे? हाथ-मुंह तक न धोया। दिन?भर तो बाहर रहते ही हो, शामसबेरे तो घर पर रहा करो। तुम नहीं रहते, तो घर सूना-सूना लगता है। मैं अभी
सोच रही थी, मुझे मैके जाना पड़े, तो मैं जाऊं या न जाऊं? मेरा जी तो वहां बिलकुल न लगे।
रमानाथ-'तुम तो कहीं जाने को तैयार बैठी हो ।'
जालपा-'सेठानीजी ने बुला भेजा है, दोपहर तक चली आऊंगी।'
रमा की दशा इस समय उस शिकारी की-सी थी, जो हिरनी को अपने शावकों के साथ किलोल करते देखकर तनी हुई बंदूक कंधो पर रख लेता है,और वह वात्सल्य और प्रेम की क्रीडादेखने में तल्लीन हो जाता है। उसे अपनी ओर टकटकी लगाए देखकर जालपा ने मुस्कराकर कहा, 'देखो,
मुझे नज़र न लगा देना। मैं तुम्हारी आंखों से बहुत डरती हूं।'
रमा एक ही उडान में वास्तविक संसार से कल्पना और कवित्व के संसार में जा पहुंचा। ऐसे अवसर पर जब जालपा का रोम-रोम आनंद से नाच रहा है, क्या वह अपना पत्र देकर उसकी सुखद कल्पनाओं को दलित कर देगा? वह कौन ह्रदयहीन व्याधा है, जो चहकती हुई चिडिया की गर्दन पर छुरी चला देगा? वह कौन अरसिक आदमी है, जो किसी प्रभात-द्दसुम को तोड़कर पैरों से कुचल डालेगा- रमा इतना ह्रदयहीन, इतना अरसिक नहीं है। वह जालपा पर इतना बडा आघात नहीं कर सकता उसके सिर कैसी ही विपत्ति क्यों न पड़ जाए, उसकी कितनी ही बदनामी क्यों न हो, उसका जीवन ही क्यों न कुचल दिया जाए, पर वह इतना निष्ठुर नहीं हो सकता उसने अनुरक्त होकर कहा,नज़र तो न लगाऊंगा, हां, ह्रदय से लगा लूंगा। इसी एक वाक्य में उसकी सारी चिंताएं, सारी बाधाएं विसर्जित हो गई। स्नेह-संकोच की वेदी पर उसने अपने को भेंट कर दिया। इस अपमान के सामने जीवन के और सारे क्लेश तुच्छ थे। इस समय उसकी दशा उस बालक की-सी थी, जो गोड़े पर नश्तर की क्षणिक पीडा न सहकर उसके फटने, नासूर पड़ने, वर्षो खाट पर पड़े रहने और कदाचित प्राणांत हो जाने के भय को भी भूल जाता है।
जालपा नीचे जाने लगी, तो रमा ने कातर होकर उसे गले से लगा लिया और इस तरह भींच-भींचकर उसे आलिंगन करने लगा, मानो यह सौभाग्य उसे फिर न मिलेगा। कौन जानता है, यही उसका अंतिम आलिंगन हो उसके करपाश मानो रेशम के सहस्रों तारों से संगठित होकर जालपा से चिमट गए थे। मानो कोई मरणासन्न कृपण अपने कोष की कुजी मुट्ठी में बंद किए हो, और प्रतिक्षण मुट्ठी कठोर पड़ती जाती हो क्या मुट्ठी को बलपूर्वक खोल देने से ही उसके प्राण न निकल जाएंगे?
सहसा जालपा बोली, 'मुझे कुछ रूपये तो दे दो, शायद वहां कुछ जरूरत पड़े। '
रमा ने चौंककर कहा, 'रूपये! रूपये तो इस वक्त नहीं हैं।'
जालपा-'हैं हैं, मुझसे बहाना कर रहे हो बस मुझे दो रूपये दे दो, और ज्यादा नहीं चाहती।'
यह कहकर उसने रमा की जेब में हाथ डाल दिया, और कुछ पैसे के साथ वह पत्र भी निकाल लिया।
रमा ने हाथ बढ़ाकर पत्र को जालपा से छीनने की चेष्टा करते हुए कहा, 'काग़ज़ मुझे दे दो, सरकारी काग़ज़ है।'
जालपा-'किसका ख़त है ।ता दो?'
जालपा ने तह किए हुए पुरजे क़ो खोलकर कहा,यह सरकारी काग़ज़ है! झूठे कहीं के! तुम्हारा ही लिखा---
रमानाथ-'दे दो, क्यों परेशान करती हो!'
रमा ने फिर काग़ज़ छीन लेना चाहा, पर जालपा ने हाथ पीछे उधरकर कहा,मैं बिना पढ़े न दूंगी। कह दिया ज्यादा ज़िद करोगे, तो फाड़ डालूंगी। रमानाथ-'अच्छा फाड़ डालो।'
जालपा-'तब तो मैं जरूर पढ़ूंगी।'
उसने दो कदम पीछे हटकर फिर ख़त को खोला और पढ़ने लगी। रमा ने फिर उसके हाथ से काग़ज़ छीनने की कोशिश नहीं की। उसे जान पडा,आसमान फट पडाहै, मानो कोई भंयकर जंतु उसे निफलने के लिए बढ़ा चला आता है। वह धड़-धड़ करता हुआ ऊपर से उतरा और घर के बाहर निकल गया। कहां अपना मुंह छिपा ले- कहां छिप जाए कि कोई उसे देख न सके।
उसकी दशा वही थी, जो किसी नंगे आदमी की होती है। वह सिर से पांव तक कपड़े पहने हुए भी नंगा था। आह! सारा परदा खुल गया! उसकी सारी कपटलीला खुल गई! जिन बातों को छिपाने की उसने इतने दिनों चेष्टा की, जिनको गुप्त रखने के लिए उसने कौन?कौन?सी कठिनाइयां नहीं झेलीं, उन सबों ने आज मानो उसके मुंह पर कालिख पोत दी। वह अपनी दुर्गति अपनी आंखों से नहीं देख सकता जालपा की सिसकियां, पिता की झिड़कियां,पड़ोसियों की कनफुसकियां सुनने की अपेक्षा मर जाना कहीं आसान होगा। जब कोई संसार में न रहेगा, तो उसे इसकी क्या परवा होगी, कोई उसे क्या कह रहा है। हाय! केवल तीन सौ रूपयों के लिए उसका सर्वनाश हुआ जा रहा है, लेकिन ईश्वर की इच्छा है, तो वह क्या कर सकता है। प्रियजनों की नज़रों से फिरकर जिए तो क्या जिए! जालपा उसे कितना नीच, कितना कपटी, कितना धूर्त, कितना गपोडिया समझ रही होगी। क्या वह अपना मुंह दिखा सकता है?

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